कहानी संग्रह >> कथा प्रस्थान कथा प्रस्थानकमलेश्वर
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कमलेश्वर की श्रेष्ठ कहानियाँ.....
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
‘‘ये कहानियाँ खासतौर से उन दिनों की है जब मैंने
सम्भवतः यह
सोच लिया था या तय कर लिया था कि साहित्य ही मेरा माध्यम होगा। उससे पहले
मैं अपने समकालीन हर परतंत्र युवा की तरह अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम तय
नहीं कर पाया था। तब अभिव्यक्ति के माध्यम का सवाल ही नहीं उठता था-तब तो
हम गुलाम थे और हमें सरकारी नौकरियों के लिए पुर्जों की तरह तैयार किया
जाता था।
एक अत्यन्त महत्वपूर्ण बात-इन कहानियों पर लेखन का जो वर्ष दिखाया गया है, वह स्मृति का मोहताज है। उसमें कहीं गलती भी हो सकती है, परन्तु प्रकाशन के वर्ष में गलती की गुंजाइश नहीं है, या बहुत कम है। शेष इतना ही कि ये प्रारम्भिक कहानियाँ मेरे अपने प्रिय पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं।
एक अत्यन्त महत्वपूर्ण बात-इन कहानियों पर लेखन का जो वर्ष दिखाया गया है, वह स्मृति का मोहताज है। उसमें कहीं गलती भी हो सकती है, परन्तु प्रकाशन के वर्ष में गलती की गुंजाइश नहीं है, या बहुत कम है। शेष इतना ही कि ये प्रारम्भिक कहानियाँ मेरे अपने प्रिय पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं।
भूमिका
यह मेरी प्रारम्भिक कहानियों का संकलन है; वही शुरू-शुरू का समय, मैनपुरी
और इलाहाबाद का ! सन् 1945-46 से लेकर सन् 1953 तक के वर्षों का एक मोटा
हिसाब है यह। मैं यह लिख चुका हूँ कि आजादी प्राप्त होने से पहले मेरा
सम्बन्ध और सम्पर्क शहीद भगतसिंह द्वारा स्थापित हिंदुस्तान सोशलिस्ट
रिपब्लिकन आर्मी अर्थात् क्रान्तिकारी सामजवादी पार्टी से था। वे बचपन के
दिन थे। मैं क्रान्तिकारियों के पत्र पहुँचानेवाला हरकारा था, क्योंकि
अंग्रेजी राज्य-सत्ता के डाकघर क्रांतिकारियों के पत्रों को खोल लिया करते
थे और उन्हें ऊंचे अफ़सरों तक पहुँचा देते थे, जिससे उनके गुप्त मन्तव्य
अंग्रेज सरकार की जानकारी में आ जाते थे और खतरा तथा जुल्म बढ़ जाते थे।
ये कहानियाँ खासौतर से उन दिनों की हैं, जब मैंने सम्भवतः यह सोच लिया था या तय कर लिया था कि साहित्य ही मेरा माध्यम होगा। उससे पहले मैं अपने समकालीन हर परतंत्र युवा की तरह अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम तय नहीं कर पाया था। तब अभिव्यक्ति के माध्यम का सवाल ही नहीं उठता था—तब तो हम गुलाम थे और हमें सरकारी नौकरियों के लिए पुर्जों की तरह तैयार किया जाता था।
शुरू-शुरू में मैं विज्ञान का विद्यार्थी था और रेलवे में मैकेनिकल इंजीनियरिंग की ट्रेनिंग के लिए चुना गया था। उसी सिलसिले में मैं जामलपुर रेलवे कारखाने में मैकेनिकल इंजीनियरिंग की एप्रेंटिसशिप के लिए दाखिल भी हो गया था। वहां की ट्रेनिंग में मेरा मन नहीं लगा, अतः मैं अपनी मां के पास मैनपुरी लौट गया, आया कहूं या भाग आया। मेरी मां ने एक ही बात कही—‘‘अपनी पढ़ाई जारी रखो।’’ उस समय मैं यह नहीं सोच पाता था कि मैं भविष्य में करूंगा क्या ? आज की भाषा में कहूं तो मैं नहीं जानता था कि मेरी अभिव्यक्ति का माध्यम क्या होगा ?
इसी समय, जबकि मैं लगभग तेरह वर्ष का था, मेरा सम्पर्क क्रान्तिकारी समाजवादी पार्टी से हुआ। पार्टी का एक अखबार निकलता था--‘क्रान्ति-युग’। मुझे इतना तो अच्छी तरह याद है कि मैंने एक-दो वर्ष बाद पहली रचना अपने इसी पत्र ‘क्रान्ति-युग’ के लिए लिखी थी। वह थी—कामागाता मारू जहाज तथा गदर पार्टी पर। इसके बाद मैं ‘क्रान्ति-युग’ में क्रान्तिकारियों की छोटी-छोटी जीवनियाँ लिखता रहा। यही मेरा प्रारम्भिक लेखन था....
शायद लेखन की ओर रुचि का कारण मेरी मैनपुरी नगरी का प्रकाश प्रेस भी था। जहाँ से ‘प्रकाश’ नामक एक अनियमित पत्र निकला करता था और इस प्रेस तथा पत्र के मालिक मेरे मित्र शिवशंकर मिश्र थे। इस पत्र में मैंने लिखा तो नहीं, क्योंकि तब लिखने की तमीज नहीं थी, परन्तु प्रूफ पढ़ना और ट्रेडिल मशीन पर कागज लगाना तथा छापना मैंने इसी प्रेस में सीखा था। बहरहाल...
तो, जो कहानियां इस संकलन में जा रही हैं—वे सन् 45-46 से उस समय तक को नापती हैं जब मैं एम.ए. प्रथम वर्ष में था। ये सब कहानियां ‘राजा निरबंसिया’, ‘देवा की मां’, ‘मुर्दों की दुनिया’ आदि कहानियों से पहले की लिखित कोशिशें हैं !
कानपुर से उन दिनों एक साप्ताहिक पत्रिका निकलती थी, उसका नाम सम्भवतः ‘राष्ट्रधर्म’ था, या कुछ ऐसा ही। मेरे मित्र और इलाहाबाद में इंटरमीडिएट के मेरे सहपाठी गंगाप्रसाद श्रीवास्तव ‘नलिन’ तथा शीतला सहाय श्रीवास्तव ने मुझे कानपुर वाली इस पत्रिका में कहानियां भेजने के लिए प्रेरित किया था। संम्भवतः मैंने कोई कहानी लिखी होगी—वह मैंने अपने इन दोनों दोस्तों को सुनाई होगी और तब इन्होंने मुझे रास्ता दिखाया होगा।
यहां संकलित कहानियों के अलावा और चार-पांच कहानियां भी मैंने शुरू-शुरू में लिखी थीं, जिनका अब कहीं अता-पता नहीं है। उनके शीर्षक तक मुझे याद नहीं। एक शीर्षक याद है—‘दीपदान’। शुरू की वे पांच-छह कहानियां कानपुरवाली साप्ताहिक पत्रिका में ही छपी थीं। उनके बाद मैंने एक कहानी लिखी—‘कर्तव्य’। वह भी वहीं छपी थी सन् 1947 में। यही कहानी थोड़ी अदल-बदल कर ‘रसीली’ कहानियां नामक पत्रिका के अक्तूबर, सन् 1948 के अंक में ‘सैनिक का कर्तव्य’ शीर्षक से छपी, जिसके लेखक के रूप में नाम दिया गया था—‘दया-शंकर मिश्र ‘सूर्य’। यह कहानी मेरी कहानी ‘कर्तव्य’ की हू-ब-हू नकल है।
श्री दयाशंकर मिश्र ‘सूर्य’ भी इत्तफाक से फतेहपुर, उत्तर प्रदेश के ही रहने वाले थे और स्थानीय राजनैतिक नेता होने के साथ-साथ गांधीवादी लेखक भी थे। वह हमारे दोनों फतेहपुरियों मित्रों—गंगाप्रसाद और शीतला सहाय के अग्रज, मित्र और सम्माननीय व्यक्ति निकल आए। उस कहानी की पूरी कटिंग मेरे पास पड़ी है, पर वह इतनी कटी-फटी और जीर्ण-शीर्ण है कि कई जगह उसके शब्दों को बदलकर, अपने शब्दों को लिखना या याद करना अब कठिन काम है। मेरी ‘कर्तव्य’ कहानी चुराई गई थी, इसका अकाट्य प्रमाण उसी चोरी की कहानी के पाठ में मौजूद है। मेरे नायक का नाम यादव रामचंद्र था। वह मराठा योद्धा था। ‘सूर्य’ जी ने उसका नाम बदलकर यादव सदाशिव कर दिया था। परन्तु कहानी के अन्तिम पैरा में उनकी गलती से नायक का नाम यादव रामचंद्र ही चला गया है। कुछ और काट छांट भी ‘सूर्य’ जी ने कहानी में की थी। इस साहित्यिक ‘चोरी’ से मेरा आत्म-विश्वास थोड़ा-सा बढ़ गया था कि शायद मैं ऐसी कहानियां लिखता हूं या लिख सकता हूं, जिन्हें पाठक लोग पढेंगे; पसन्द करेंगे और शायद याद भी रखेंगे।
इतना आत्म-विश्वास काफी था, क्योंकि मैं साहित्य का विद्यार्थी बिलकुल नहीं था। मैं विज्ञान का विद्यार्थी था और लेखन मेरी मजबूरी नहीं थी। मैं शायद तब सिर्फ अपने लिए कोई रास्ता या अपनी अभिव्यक्ति का रास्ता तलाश रहा था। (‘अभिव्यक्ति’ शब्द यहां पर मुझे बहुत बड़ा लग रहा है !) बहरहाल.....
‘कथा-प्रस्थान’ की ये प्रारम्भिक कहानियां तब अप्सरा, रजनी, मनोहर कहानियां, निर्झर, नई सदी, जागृति, वसुधा, राष्ट्रवाणी और धर्मयुग आदि में छपी थीं। ‘अप्सरा’ में छपी कहानी ‘कॉमरेड’ को डॉ. धर्मवीर भारती ने इलाहाबाद में चर्चा का विषय बना दिया था। तब से इसे ही यानी ‘कॉमरेड’ कहानी को मेरी पहली प्रकाशित कहानी माना जाता है। पर मेरे खयाल और स्मृति से यह संभवतः ठीक या सही भी है और नहीं भी है। पिछली लिखित और प्रकाशित कहानियां अगर मिल जाती हैं तो इसका प्रथम होने का दर्जा निश्चय ही बदल जायेगा। हां, इतना याद है कि अन्य खोई हुईं या अप्राप्य कहानियां चार या पांच से अधिक नहीं हैं !
अब, इन कहानियों के बारे में कुछ आवश्यक बातें—
1. पहली तो यह कि मैं इन कहानियों के प्रकाशन के पक्ष में नहीं था, पर राजपाल एण्ड सन्ज़ के विश्वनाथ जी तथा कुछ आलोचक मित्रों और सम्मान्य प्राध्यापकों की राय थी कि इन्हें छपना चाहिए, अतः ये छप रही हैं।
2. ‘आधुनिक दिन, आधुनिक रातें’ कहानी के अंतिम डेढ़ या दो पृष्ठ खो गये हैं, पर चढ़ने पर मुझे इस कहानी का अन्त भी, जो अब है, ठीक ही लगा था, अतः इस अधूरी-सी कहानी को भी दिया जा रहा है।
3. ‘कर्तव्य’ कहानी का जितना पाठ मुझे अब समझ में आ गया है, वही मैंने ज्यों-का-त्यों दे दिया है। क्योंकि चोरी की गई कहानी की प्रकाशित कॉपी पर मैंने स्वयं ‘सूर्य जी’ के शब्दों को काटकर अपने शब्द लिखे हैं जो उस समय मुझे अवश्य ही याद रहे होंगे !
4. मैं इन्हें अपनी कमजोर कहानियां मानता रहा हूं, या कहूं कि लिखने के बाद इनसे संतुष्टि नहीं मिली है, इसलिए इनमें से कई कहानियां लिखे जाने के बाद पड़ी रहीं और जब कभी किसी सम्पादक-मित्र ने बहुत मांग की और मैं उनके लिए किसी संगत विषय पर कहानी लिखने का दायित्व पूरा नहीं कर पाया, तो मित्रता और जरूरत के नाते कोई पड़ी हुई कहानी प्रकाशन-योग्य मान ली गई।
5. ऐसी कहानियों में ‘माटी सुबरन बरसाय’, ‘अजनबी लोग’, ‘तंग गलियों के मकान’, ‘सरोकार’, ‘पीला गुलाब’, ‘अजनबी’, ‘अधूरी कहानी’ तथा कॉमरेड’ हैं, जो लिखी तो गईं, पर जिन्हें मैंने प्रकाशन-योग्य नहीं माना था, परंतु बाद में ये छपी थीं।
6. प्रत्येक कहानी के साथ लेखन-वर्ष भी दिया है। और ये कहानियां उन्हीं वर्षों में छपी भी हैं।
जहां मैंने ‘अन्तिम’ प्रारूप का जिक्र किया है, वहां उसे यह न माना जाए कि मैंने बाद में उस कहानी को दुबारा लिखा, संवारा या इनका पुनर्लेखन किया है। बस इतना किया होगा कि कहीं एकाध शब्द बदला होगा या फिर उसका शीर्षक। जैसे ‘फरार’ कहानी का पिछला शीर्षक ‘उचक्का’ था।
7. यह मेरी कमजोरी रही है कि मैं आज तक किसी भी कहानी को दुबारा नहीं लिख सका। एक ही बार में कहानी पूरी करता हूं—शायद यह कामचोरी की आदत का परिणाम है ? (लेखक मूलतः कामचोर होता है !)
8. शुरू की वे चार-पांच कहानियां तो अप्राप्य हैं, उन्हें मैंने निश्चय ही प्रकाशन के लिए लिखा था और लिखे जाते ही वे छपी भी थीं।
9. एक अत्यन्त महत्वपूर्ण बात—इन कहानियों पर लेखन का जो वर्ष दिया गया है, वह स्मृति का मोहताज है, उसमें कहीं गलती भी हो सकती है परन्तु प्रकाशन के वर्ष में गलती की गुंजाइश नहीं है या बहुत कम है।
शेष, इतना ही कि ये प्रारम्भिक कहानियां मेरे अपने प्रिय पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं।
ये कहानियाँ खासौतर से उन दिनों की हैं, जब मैंने सम्भवतः यह सोच लिया था या तय कर लिया था कि साहित्य ही मेरा माध्यम होगा। उससे पहले मैं अपने समकालीन हर परतंत्र युवा की तरह अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम तय नहीं कर पाया था। तब अभिव्यक्ति के माध्यम का सवाल ही नहीं उठता था—तब तो हम गुलाम थे और हमें सरकारी नौकरियों के लिए पुर्जों की तरह तैयार किया जाता था।
शुरू-शुरू में मैं विज्ञान का विद्यार्थी था और रेलवे में मैकेनिकल इंजीनियरिंग की ट्रेनिंग के लिए चुना गया था। उसी सिलसिले में मैं जामलपुर रेलवे कारखाने में मैकेनिकल इंजीनियरिंग की एप्रेंटिसशिप के लिए दाखिल भी हो गया था। वहां की ट्रेनिंग में मेरा मन नहीं लगा, अतः मैं अपनी मां के पास मैनपुरी लौट गया, आया कहूं या भाग आया। मेरी मां ने एक ही बात कही—‘‘अपनी पढ़ाई जारी रखो।’’ उस समय मैं यह नहीं सोच पाता था कि मैं भविष्य में करूंगा क्या ? आज की भाषा में कहूं तो मैं नहीं जानता था कि मेरी अभिव्यक्ति का माध्यम क्या होगा ?
इसी समय, जबकि मैं लगभग तेरह वर्ष का था, मेरा सम्पर्क क्रान्तिकारी समाजवादी पार्टी से हुआ। पार्टी का एक अखबार निकलता था--‘क्रान्ति-युग’। मुझे इतना तो अच्छी तरह याद है कि मैंने एक-दो वर्ष बाद पहली रचना अपने इसी पत्र ‘क्रान्ति-युग’ के लिए लिखी थी। वह थी—कामागाता मारू जहाज तथा गदर पार्टी पर। इसके बाद मैं ‘क्रान्ति-युग’ में क्रान्तिकारियों की छोटी-छोटी जीवनियाँ लिखता रहा। यही मेरा प्रारम्भिक लेखन था....
शायद लेखन की ओर रुचि का कारण मेरी मैनपुरी नगरी का प्रकाश प्रेस भी था। जहाँ से ‘प्रकाश’ नामक एक अनियमित पत्र निकला करता था और इस प्रेस तथा पत्र के मालिक मेरे मित्र शिवशंकर मिश्र थे। इस पत्र में मैंने लिखा तो नहीं, क्योंकि तब लिखने की तमीज नहीं थी, परन्तु प्रूफ पढ़ना और ट्रेडिल मशीन पर कागज लगाना तथा छापना मैंने इसी प्रेस में सीखा था। बहरहाल...
तो, जो कहानियां इस संकलन में जा रही हैं—वे सन् 45-46 से उस समय तक को नापती हैं जब मैं एम.ए. प्रथम वर्ष में था। ये सब कहानियां ‘राजा निरबंसिया’, ‘देवा की मां’, ‘मुर्दों की दुनिया’ आदि कहानियों से पहले की लिखित कोशिशें हैं !
कानपुर से उन दिनों एक साप्ताहिक पत्रिका निकलती थी, उसका नाम सम्भवतः ‘राष्ट्रधर्म’ था, या कुछ ऐसा ही। मेरे मित्र और इलाहाबाद में इंटरमीडिएट के मेरे सहपाठी गंगाप्रसाद श्रीवास्तव ‘नलिन’ तथा शीतला सहाय श्रीवास्तव ने मुझे कानपुर वाली इस पत्रिका में कहानियां भेजने के लिए प्रेरित किया था। संम्भवतः मैंने कोई कहानी लिखी होगी—वह मैंने अपने इन दोनों दोस्तों को सुनाई होगी और तब इन्होंने मुझे रास्ता दिखाया होगा।
यहां संकलित कहानियों के अलावा और चार-पांच कहानियां भी मैंने शुरू-शुरू में लिखी थीं, जिनका अब कहीं अता-पता नहीं है। उनके शीर्षक तक मुझे याद नहीं। एक शीर्षक याद है—‘दीपदान’। शुरू की वे पांच-छह कहानियां कानपुरवाली साप्ताहिक पत्रिका में ही छपी थीं। उनके बाद मैंने एक कहानी लिखी—‘कर्तव्य’। वह भी वहीं छपी थी सन् 1947 में। यही कहानी थोड़ी अदल-बदल कर ‘रसीली’ कहानियां नामक पत्रिका के अक्तूबर, सन् 1948 के अंक में ‘सैनिक का कर्तव्य’ शीर्षक से छपी, जिसके लेखक के रूप में नाम दिया गया था—‘दया-शंकर मिश्र ‘सूर्य’। यह कहानी मेरी कहानी ‘कर्तव्य’ की हू-ब-हू नकल है।
श्री दयाशंकर मिश्र ‘सूर्य’ भी इत्तफाक से फतेहपुर, उत्तर प्रदेश के ही रहने वाले थे और स्थानीय राजनैतिक नेता होने के साथ-साथ गांधीवादी लेखक भी थे। वह हमारे दोनों फतेहपुरियों मित्रों—गंगाप्रसाद और शीतला सहाय के अग्रज, मित्र और सम्माननीय व्यक्ति निकल आए। उस कहानी की पूरी कटिंग मेरे पास पड़ी है, पर वह इतनी कटी-फटी और जीर्ण-शीर्ण है कि कई जगह उसके शब्दों को बदलकर, अपने शब्दों को लिखना या याद करना अब कठिन काम है। मेरी ‘कर्तव्य’ कहानी चुराई गई थी, इसका अकाट्य प्रमाण उसी चोरी की कहानी के पाठ में मौजूद है। मेरे नायक का नाम यादव रामचंद्र था। वह मराठा योद्धा था। ‘सूर्य’ जी ने उसका नाम बदलकर यादव सदाशिव कर दिया था। परन्तु कहानी के अन्तिम पैरा में उनकी गलती से नायक का नाम यादव रामचंद्र ही चला गया है। कुछ और काट छांट भी ‘सूर्य’ जी ने कहानी में की थी। इस साहित्यिक ‘चोरी’ से मेरा आत्म-विश्वास थोड़ा-सा बढ़ गया था कि शायद मैं ऐसी कहानियां लिखता हूं या लिख सकता हूं, जिन्हें पाठक लोग पढेंगे; पसन्द करेंगे और शायद याद भी रखेंगे।
इतना आत्म-विश्वास काफी था, क्योंकि मैं साहित्य का विद्यार्थी बिलकुल नहीं था। मैं विज्ञान का विद्यार्थी था और लेखन मेरी मजबूरी नहीं थी। मैं शायद तब सिर्फ अपने लिए कोई रास्ता या अपनी अभिव्यक्ति का रास्ता तलाश रहा था। (‘अभिव्यक्ति’ शब्द यहां पर मुझे बहुत बड़ा लग रहा है !) बहरहाल.....
‘कथा-प्रस्थान’ की ये प्रारम्भिक कहानियां तब अप्सरा, रजनी, मनोहर कहानियां, निर्झर, नई सदी, जागृति, वसुधा, राष्ट्रवाणी और धर्मयुग आदि में छपी थीं। ‘अप्सरा’ में छपी कहानी ‘कॉमरेड’ को डॉ. धर्मवीर भारती ने इलाहाबाद में चर्चा का विषय बना दिया था। तब से इसे ही यानी ‘कॉमरेड’ कहानी को मेरी पहली प्रकाशित कहानी माना जाता है। पर मेरे खयाल और स्मृति से यह संभवतः ठीक या सही भी है और नहीं भी है। पिछली लिखित और प्रकाशित कहानियां अगर मिल जाती हैं तो इसका प्रथम होने का दर्जा निश्चय ही बदल जायेगा। हां, इतना याद है कि अन्य खोई हुईं या अप्राप्य कहानियां चार या पांच से अधिक नहीं हैं !
अब, इन कहानियों के बारे में कुछ आवश्यक बातें—
1. पहली तो यह कि मैं इन कहानियों के प्रकाशन के पक्ष में नहीं था, पर राजपाल एण्ड सन्ज़ के विश्वनाथ जी तथा कुछ आलोचक मित्रों और सम्मान्य प्राध्यापकों की राय थी कि इन्हें छपना चाहिए, अतः ये छप रही हैं।
2. ‘आधुनिक दिन, आधुनिक रातें’ कहानी के अंतिम डेढ़ या दो पृष्ठ खो गये हैं, पर चढ़ने पर मुझे इस कहानी का अन्त भी, जो अब है, ठीक ही लगा था, अतः इस अधूरी-सी कहानी को भी दिया जा रहा है।
3. ‘कर्तव्य’ कहानी का जितना पाठ मुझे अब समझ में आ गया है, वही मैंने ज्यों-का-त्यों दे दिया है। क्योंकि चोरी की गई कहानी की प्रकाशित कॉपी पर मैंने स्वयं ‘सूर्य जी’ के शब्दों को काटकर अपने शब्द लिखे हैं जो उस समय मुझे अवश्य ही याद रहे होंगे !
4. मैं इन्हें अपनी कमजोर कहानियां मानता रहा हूं, या कहूं कि लिखने के बाद इनसे संतुष्टि नहीं मिली है, इसलिए इनमें से कई कहानियां लिखे जाने के बाद पड़ी रहीं और जब कभी किसी सम्पादक-मित्र ने बहुत मांग की और मैं उनके लिए किसी संगत विषय पर कहानी लिखने का दायित्व पूरा नहीं कर पाया, तो मित्रता और जरूरत के नाते कोई पड़ी हुई कहानी प्रकाशन-योग्य मान ली गई।
5. ऐसी कहानियों में ‘माटी सुबरन बरसाय’, ‘अजनबी लोग’, ‘तंग गलियों के मकान’, ‘सरोकार’, ‘पीला गुलाब’, ‘अजनबी’, ‘अधूरी कहानी’ तथा कॉमरेड’ हैं, जो लिखी तो गईं, पर जिन्हें मैंने प्रकाशन-योग्य नहीं माना था, परंतु बाद में ये छपी थीं।
6. प्रत्येक कहानी के साथ लेखन-वर्ष भी दिया है। और ये कहानियां उन्हीं वर्षों में छपी भी हैं।
जहां मैंने ‘अन्तिम’ प्रारूप का जिक्र किया है, वहां उसे यह न माना जाए कि मैंने बाद में उस कहानी को दुबारा लिखा, संवारा या इनका पुनर्लेखन किया है। बस इतना किया होगा कि कहीं एकाध शब्द बदला होगा या फिर उसका शीर्षक। जैसे ‘फरार’ कहानी का पिछला शीर्षक ‘उचक्का’ था।
7. यह मेरी कमजोरी रही है कि मैं आज तक किसी भी कहानी को दुबारा नहीं लिख सका। एक ही बार में कहानी पूरी करता हूं—शायद यह कामचोरी की आदत का परिणाम है ? (लेखक मूलतः कामचोर होता है !)
8. शुरू की वे चार-पांच कहानियां तो अप्राप्य हैं, उन्हें मैंने निश्चय ही प्रकाशन के लिए लिखा था और लिखे जाते ही वे छपी भी थीं।
9. एक अत्यन्त महत्वपूर्ण बात—इन कहानियों पर लेखन का जो वर्ष दिया गया है, वह स्मृति का मोहताज है, उसमें कहीं गलती भी हो सकती है परन्तु प्रकाशन के वर्ष में गलती की गुंजाइश नहीं है या बहुत कम है।
शेष, इतना ही कि ये प्रारम्भिक कहानियां मेरे अपने प्रिय पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं।
जन्म
यह भरे-पूरे परिवारों की गली है। सुबह से बच्चे एक-दूसरे को पुकारने लगते
हैं। रात को जो घर अलग-अलग लगते हैं, वे सब इस वक्त मिलजुल जाते हैं, कुछ
पता नहीं चलता कि कौन बच्चा किस घर का है। बुजुर्गों की अपनी लड़ाइयां
हैं, जवानों के पैंतरें हैं, औरतों की चख-चख है, पर बच्चों की बड़ी गाढ़ी
दोस्ती है। मार-पिटाई भी होती है, पार्टियां बनती हैं, खट्टी होती है; पर
सब रेत के घरौंदे की तरह। जवान लड़कियों में बहनापा भी है और
ईर्ष्या-द्वेष भी ! हर औरत के पास दूसरे घरों की पोलें भी हैं उन्हीं घरों
से वक्त-बेवक्त का आसरा भी....
यूं परिवार सभी के भरे-पूरे थे पर चंद्रमुंशी का घराना सबसे बड़ा था। बच्चे पैदा होना और मर जाना यहां के लिए बहुत बड़ी बात नहीं रह गयी है और न बालकों को यह भ्रम है कि उनके नये भाई-बहन परमात्मा के यहां से आनजाने आ जाते हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि नये बच्चे अम्मा के पेट से आते हैं। उन दिनों अम्मा काम नहीं करती और घर में अजीब-सी खामोशी छा जाती है....बाबू जी रात में उठकर कई बार इधर-उधर जाते हैं और तब अम्मा चीखती है, घायल गाय की तरह रंभाती है—छटपटाती है, बस तब उन्हें नींद नहीं आती। उसके बाद एक पतली-सी आवाज सुनायी पड़ती है और अम्मा चुप हो जाती है—घर में नया जीव आ जाता है और वे सो जाते हैं। दूसरे दिन से बड़ी बहनें खाना पकाती हैं और बहुत मारती-पीटती हैं...बाबूजी जैसे गहरे पानी में गोता खाकर निकल तो आते हैं, पर लस्त होकर लेट जाते हैं।
चन्दू मुंशी के पड़ोस वाले घर में कानाफूसी हो रही थी—‘‘हर साल एक बच्चा जनती है...जब देखो तब। पूछो, जब खाने का ठिकाना नहीं तो औलाद काहे को पैदा करती जा रही है। इतने कच्चे-बच्चे हैं, इन्हीं का पालन-पोषन कर लो...’’
‘‘मरन तो मुंशी का होता है...देखा है, चूसे आम की तरह मुँह निकल आया है बेचारे का !’’ किसी दूसरी ने कहा तो उत्तर मिला, ‘‘अरे आदमियों की भली चलाई...गलती तो उन्हीं की है...’’ और फिर मामूली घटना की तरह बात इधर-उधर हो गयी।
पर चन्दू मुंशी के घर में बहुत उदास खामोशी छायी हुई थी। शाम हो रही थी। बच्चे इधर-उधर कमरों में भूखे घूम रहे थे। दादी बरोसी में आग लिए हाथ पांव सेंक रही थी और बाबा रजाई ओढ़े हुक्का पीते हुए अपने फटे हुए मोजों के बारे में बड़बड़ा रहे थे। घर का वातावरण बहुत बेहुदा हो गया था। चारों ओर ठंडक रेंग रही थी और बच्चे सर्दी में कुलबुला रहे थे। चन्दू मुंशी बाहर वाली बैठक में लालटेन मद्धिम किए हुए सहमे से बैठे हुए थे, जैसे उन्होंने कानों में रुई घुसेड़ ली हो !
हुक्का गुड़-गुड़ाकर बाबा बड़बड़ाए, ‘‘इन बच्चों को क्या सर्दी में मार डाला जायेगा ! खाना नहीं बना है तो भूखा सुला दो। कहीं इनके सोने का इन्तजाम तो करो !’’
‘‘कौन करे, किसके तन में इतना बूता है जो ये गुलमई करे !’’ बरोसी की आग अंगुलियों से खोद-खोदकर दादी बड़बड़ाती चली गयीं, ‘‘उनकी अम्मारानी को अपना ठठेसना लेकर पड़ी हैं। रोज-रोज की ये खोखट बहुत बुरी लगती है, हां ! हमसे नहीं होता।’’
जब से इस सातवें बच्चे की सुनगुन घर और बाहर फैली है तब से जैसे किसी अदृश्य अशुभ की छायाएं यहां मंडरा रही हैं। ऐसा लगता है कि काले आसमान से कोई राक्षस उतरकर इस घर को घेर लेना चाहता है। सातवां बच्चा ! जिसके नन्हे-नन्हे डैने ज़हर-भरी हवा लेकर आ रहे हैं...वह इन सब लोगों की गर्दन पर पैर रखता हुआ नाचेगा और अट्टहास करेगा !
और चन्दू की पत्नी पिछले तीन महीनों से सकुचाई-सकुचाई रहती है। जैसे उसने कोई भीषण पाप किया हो और उस पाप की लपेट में पूरा घर आ गया हो। अब तक वह चन्दू से सबके सामने बात कर लेती थी पर अब न जाने क्यों नहीं कर पाती....घर का प्रत्येक प्राणी अपनी तरह दुःखी है—और उसकी आंखों के सामने वह पहला दिन घूम जाता है जब वह बारह बरस पहले उसकी गोद पहली बार भरी गयी थी...वह खुशी अब क्यों गुम हो गयी ? ऐसा कौन-सा अनिष्ट उसने कर दिया है, जो कोई सीधे मुंह बात नहीं करता। तीन महीने से वह अपनी कमर का दर्द छिपाए मशीन की तरह काम करती रही है....एक आवाज़ मुँह से नहीं निकालती और अपने गर्भस्थ शिशु को इस तरह छिपाए रहती है कि किसी को खयाल न आए। वह और भी फुर्ती से चलती-फिरती है, पेट में जब दर्द की लहर दौड़ जाती है, तब भी वह हंसकर टाल जाती है, किसी से कुछ नहीं कहती। इस बार भी तो गोद ही भर रही है...पर वे खुशी से चमकते हुए चेहरे खो गए हैं। वह एक बच्चे को नहीं, शायद मुसीबतों के एक ढेर को जन्म देने जा रही है....
बिनानागा वह अम्मा जी के पैर दबाती रही। बाबूजी का हुक्का गरम करती रही और हाथ-पैर धोने के लिए पानी गरम करती रही। वक्त से खाना देती रही और चाहती थी कि इन लोगों के दिमाग़ से यह खयाल उतरा रहे कि वह सातवें बच्चे की मां बनने जा रही है ! उसे भीतर से कोई डस रहा था....सबकी नज़रों की खामोशी उसे धिक्कार रही थी....बच्चे भी तो उससे नहीं पूछते, ‘‘अम्मा नया भैया कब आएगा !’’ शायद तब उसकी आंखों में मातृत्व की एक लौ उठती और वह अपने गर्भस्थ शिशु के स्वागत के लिए हंसते-हंसते दर्द सहती। अब तो वह खामोशी से दर्द पी रही थी...
और अम्माजी ने अपना सारा सगुन बिचारा था, एक दिन वहीं से बैठे-बैठे पुकारा था, ‘‘बहू जरा यहां आना !’’ और उसके उठकर आते ही होंठ बुदबुदाने लगे थे—‘‘बस कर देख लिया...जा...अपना काम कर।’’ और तब उन्होंने बाबूजी को निश्चयात्मक स्वर में बताया था, ‘‘मैं कहती हूं, लड़की होगी ! तुम चाहे देख लेना !’’
‘‘तुझे कैसे मालूम !’’ बाबा ने उदासी से पूछा था।
‘‘बस कह दिया। देख लेना। बहू का दाहिना पैर आगे जाता है पहले...लच्छन तो पहले से ही पुकारने लगते हैं !’’ दादी ने अपने वृद्धावस्था के अनुभवों के आधार पर आखिरी बात कर दी थी ‘‘देख नहीं रहे हो ! जरा बहू का चेहरा-मोहरा देखो ! खाई-पीये की तरह फूल गयी है....चेहरे की रौनक नहीं देखते !’’
‘‘रौनक तो बच्चा होने की है !’’ बाबा ने कहा तो दादी ने समझाया, ‘‘लड़का पेट में होता तो सूखकर कांटा हो जाती, मुंह उतर जाता...इतनी उलटियां आतीं कि बस...सुस्ती के मारे उठा नहीं जाता। इतना दर्द उठता कि जच्चा सह नहीं सकती। समझे।’’
और तब चन्दू की पत्नी की आंखों में आंसू उमड़ आए थे। उसने मन की घबराहट रोक-रोककर कितनी बार नल खोलकर उसके शोर में उलटियां की हैं। रातों में सर्प की तरह लहराता हुआ दर्द ओंठ भींच-भींचकर चुपचाप सहा है। टूटे हुए शरीर से भी दौड़-दौड़कर इतने काम करती है कि तुम यह सब भूल जाओ...
पहली बार सातवें बच्चे की खबर सुनकर चेहरों पर स्याही पुत गयी थी और दादी ने ज़हर, भरा तीर मारा था, ‘‘अब यह सब अच्छा नहीं लगता। रोज पेट पकड़े पड़ी रहती है। घर में बच्चे समझदार हो गए हैं, पर इन्हें शरम नहीं आती !’’
शरम तो उसे सचमुच पहले बच्चे के जन्म पर आयी थी जब मुहल्ले भर की औरतों के सामने उसकी गोद में नारियल-मखाने और बताशे डाले गए थे....आशीर्वाद की वर्षा हुई थी—दूधो नहाओ पूतों फलो !...तब दादी को शरम नहीं लगी थी,
हुलस-हुलस कर कहा करती थी, ‘‘भगवान ने यह साध भी पूरी कर दी बहिन ! पोते-पोतियों के सुख से बड़ा और कौन-सा सुख है...इसी दिन के लिए आदमी जिन्दगी भर का ठाठ खड़ा करता है ! और बाबा ने दरवाजे पर शहनाई बैठाई थी....वह फलवती हुई थी....रातों में उसने फलों से लदे वृक्षों के सपने देखे थे और एक चांद-सी रोशनी नीले आकाश से उतर कर उसके गर्भ में समा गयी थी। जरा-सी आह पर दादी दौड़तीं, ‘‘बहू तू बैठ। मैं सब कर लूंगी। अरे पानी से भरी बाल्टी मत उठा बेटा ! धीरे-धीरे उतर सीढ़ियां। संभल के चल, धीरे धीरे उतर सीढ़ियां। संभाल के चल बेटा...’’
और कितने दिन पहले से उन्होंने सब तैयारियां की थीं। बाबा को सब चीजों की फेहरिश्त दे गयी थी—मेवा, घी, खोया, सोठ, छुआरे, चीनी, गुड़ और न जाने क्या क्या ? और बहुत प्यार से कहा था, ‘‘बहू तू तो बड़ी नासमझ है। दो-चार नन्हे-नन्हे कुरते सी ले, एक नन्हा-सा स्वेटर बुन ले...’’—और उनका सूखा चेहरा खिल-खिल उठता था।
और चन्दू उनकी आंख बचाकर उसे भीतर कमरे में पकड़ लाता था, आंखों में स्नेह भरकर पूछता था, ‘‘डर तो नहीं लगता !’’ और वह सचमुच अपने मन का डर छिपा नहीं पाती, ‘‘हाय...यह सब कैसे होगा...’’ और चन्दू के कंधे पर सिर रखकर डरी हुई हिरनी की तरह कांपती रहती थी...चारों तरफ घर में वही थी, हर आंख उस पर लगी थी। बाबा तक उसे आंखों से ओझल पा चिंता से कहने लगते थे, ‘‘देख, बहू वहां शायद अंधेरे कमरे में लेटी है...एक लालटेन तो रख आ !’’ और दादी लालटेन रखकर उसकी पीठ पर सान्त्वना का हाथ फेरकर कहती थीं, ‘‘घबरा मत बेटा। इस तरह अंधेरे में मत लेटा कर। कहीं खौफ समा गया तो...’’
चन्द्र ग्रहण की रात उन्होंने उसे बाहर नहीं निकलने दिया था। राहू से ग्रसे चन्द्र को देखने नहीं दिया था...अनिष्ट की छाया उस पर नहीं पड़ने दी थी और उसके हाथों से दान कराया हुआ अन्न मुक्त हाथों से बांटा था...
चन्दू ने कमरे में नन्हे-नन्हे, ,सुन्दर-सुन्दर बालकों के चित्र टांगे थे। पीड़ा, उल्लास और मातृत्व की सतर्कता के दिन कितने अनोखे थे ! जैसे अपने नारी-जीवन की चरम प्राप्ति उसे हुई थी...मखमली पंखों वाली दुग्ध वर्ण नन्हें-नन्हें देवदूत हर ओर मुस्कराते उड़ते रहते थे...आकाश में सितारों के फूल खिलते थे...
लेकिन आज आसमान काला था। सबके ऊपर सितारे टूट रहे थे और जैसे काले पंजों वाला दैत्य सबके गले दबोचे हुए था। अभी-अभी वह नल के शोर में उल्टी करके आयी है। शरीर नागपाश में जकड़ा हुआ है और लाखों सर्प का दंश उसे नीला करता जा रहा है। इस सर्दी में और इस अंधेरे कमरे में वह ऐसे ही अकड़कर टूट जाएगी और दर्द से भरे हुए उसके ओंठ फड़फड़ा कर बेजान हो जाएंगे। ऐसी मनहूस खामोशी में वह अपनी ही चीख से डरकर मर जाएगी।...
यूं परिवार सभी के भरे-पूरे थे पर चंद्रमुंशी का घराना सबसे बड़ा था। बच्चे पैदा होना और मर जाना यहां के लिए बहुत बड़ी बात नहीं रह गयी है और न बालकों को यह भ्रम है कि उनके नये भाई-बहन परमात्मा के यहां से आनजाने आ जाते हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि नये बच्चे अम्मा के पेट से आते हैं। उन दिनों अम्मा काम नहीं करती और घर में अजीब-सी खामोशी छा जाती है....बाबू जी रात में उठकर कई बार इधर-उधर जाते हैं और तब अम्मा चीखती है, घायल गाय की तरह रंभाती है—छटपटाती है, बस तब उन्हें नींद नहीं आती। उसके बाद एक पतली-सी आवाज सुनायी पड़ती है और अम्मा चुप हो जाती है—घर में नया जीव आ जाता है और वे सो जाते हैं। दूसरे दिन से बड़ी बहनें खाना पकाती हैं और बहुत मारती-पीटती हैं...बाबूजी जैसे गहरे पानी में गोता खाकर निकल तो आते हैं, पर लस्त होकर लेट जाते हैं।
चन्दू मुंशी के पड़ोस वाले घर में कानाफूसी हो रही थी—‘‘हर साल एक बच्चा जनती है...जब देखो तब। पूछो, जब खाने का ठिकाना नहीं तो औलाद काहे को पैदा करती जा रही है। इतने कच्चे-बच्चे हैं, इन्हीं का पालन-पोषन कर लो...’’
‘‘मरन तो मुंशी का होता है...देखा है, चूसे आम की तरह मुँह निकल आया है बेचारे का !’’ किसी दूसरी ने कहा तो उत्तर मिला, ‘‘अरे आदमियों की भली चलाई...गलती तो उन्हीं की है...’’ और फिर मामूली घटना की तरह बात इधर-उधर हो गयी।
पर चन्दू मुंशी के घर में बहुत उदास खामोशी छायी हुई थी। शाम हो रही थी। बच्चे इधर-उधर कमरों में भूखे घूम रहे थे। दादी बरोसी में आग लिए हाथ पांव सेंक रही थी और बाबा रजाई ओढ़े हुक्का पीते हुए अपने फटे हुए मोजों के बारे में बड़बड़ा रहे थे। घर का वातावरण बहुत बेहुदा हो गया था। चारों ओर ठंडक रेंग रही थी और बच्चे सर्दी में कुलबुला रहे थे। चन्दू मुंशी बाहर वाली बैठक में लालटेन मद्धिम किए हुए सहमे से बैठे हुए थे, जैसे उन्होंने कानों में रुई घुसेड़ ली हो !
हुक्का गुड़-गुड़ाकर बाबा बड़बड़ाए, ‘‘इन बच्चों को क्या सर्दी में मार डाला जायेगा ! खाना नहीं बना है तो भूखा सुला दो। कहीं इनके सोने का इन्तजाम तो करो !’’
‘‘कौन करे, किसके तन में इतना बूता है जो ये गुलमई करे !’’ बरोसी की आग अंगुलियों से खोद-खोदकर दादी बड़बड़ाती चली गयीं, ‘‘उनकी अम्मारानी को अपना ठठेसना लेकर पड़ी हैं। रोज-रोज की ये खोखट बहुत बुरी लगती है, हां ! हमसे नहीं होता।’’
जब से इस सातवें बच्चे की सुनगुन घर और बाहर फैली है तब से जैसे किसी अदृश्य अशुभ की छायाएं यहां मंडरा रही हैं। ऐसा लगता है कि काले आसमान से कोई राक्षस उतरकर इस घर को घेर लेना चाहता है। सातवां बच्चा ! जिसके नन्हे-नन्हे डैने ज़हर-भरी हवा लेकर आ रहे हैं...वह इन सब लोगों की गर्दन पर पैर रखता हुआ नाचेगा और अट्टहास करेगा !
और चन्दू की पत्नी पिछले तीन महीनों से सकुचाई-सकुचाई रहती है। जैसे उसने कोई भीषण पाप किया हो और उस पाप की लपेट में पूरा घर आ गया हो। अब तक वह चन्दू से सबके सामने बात कर लेती थी पर अब न जाने क्यों नहीं कर पाती....घर का प्रत्येक प्राणी अपनी तरह दुःखी है—और उसकी आंखों के सामने वह पहला दिन घूम जाता है जब वह बारह बरस पहले उसकी गोद पहली बार भरी गयी थी...वह खुशी अब क्यों गुम हो गयी ? ऐसा कौन-सा अनिष्ट उसने कर दिया है, जो कोई सीधे मुंह बात नहीं करता। तीन महीने से वह अपनी कमर का दर्द छिपाए मशीन की तरह काम करती रही है....एक आवाज़ मुँह से नहीं निकालती और अपने गर्भस्थ शिशु को इस तरह छिपाए रहती है कि किसी को खयाल न आए। वह और भी फुर्ती से चलती-फिरती है, पेट में जब दर्द की लहर दौड़ जाती है, तब भी वह हंसकर टाल जाती है, किसी से कुछ नहीं कहती। इस बार भी तो गोद ही भर रही है...पर वे खुशी से चमकते हुए चेहरे खो गए हैं। वह एक बच्चे को नहीं, शायद मुसीबतों के एक ढेर को जन्म देने जा रही है....
बिनानागा वह अम्मा जी के पैर दबाती रही। बाबूजी का हुक्का गरम करती रही और हाथ-पैर धोने के लिए पानी गरम करती रही। वक्त से खाना देती रही और चाहती थी कि इन लोगों के दिमाग़ से यह खयाल उतरा रहे कि वह सातवें बच्चे की मां बनने जा रही है ! उसे भीतर से कोई डस रहा था....सबकी नज़रों की खामोशी उसे धिक्कार रही थी....बच्चे भी तो उससे नहीं पूछते, ‘‘अम्मा नया भैया कब आएगा !’’ शायद तब उसकी आंखों में मातृत्व की एक लौ उठती और वह अपने गर्भस्थ शिशु के स्वागत के लिए हंसते-हंसते दर्द सहती। अब तो वह खामोशी से दर्द पी रही थी...
और अम्माजी ने अपना सारा सगुन बिचारा था, एक दिन वहीं से बैठे-बैठे पुकारा था, ‘‘बहू जरा यहां आना !’’ और उसके उठकर आते ही होंठ बुदबुदाने लगे थे—‘‘बस कर देख लिया...जा...अपना काम कर।’’ और तब उन्होंने बाबूजी को निश्चयात्मक स्वर में बताया था, ‘‘मैं कहती हूं, लड़की होगी ! तुम चाहे देख लेना !’’
‘‘तुझे कैसे मालूम !’’ बाबा ने उदासी से पूछा था।
‘‘बस कह दिया। देख लेना। बहू का दाहिना पैर आगे जाता है पहले...लच्छन तो पहले से ही पुकारने लगते हैं !’’ दादी ने अपने वृद्धावस्था के अनुभवों के आधार पर आखिरी बात कर दी थी ‘‘देख नहीं रहे हो ! जरा बहू का चेहरा-मोहरा देखो ! खाई-पीये की तरह फूल गयी है....चेहरे की रौनक नहीं देखते !’’
‘‘रौनक तो बच्चा होने की है !’’ बाबा ने कहा तो दादी ने समझाया, ‘‘लड़का पेट में होता तो सूखकर कांटा हो जाती, मुंह उतर जाता...इतनी उलटियां आतीं कि बस...सुस्ती के मारे उठा नहीं जाता। इतना दर्द उठता कि जच्चा सह नहीं सकती। समझे।’’
और तब चन्दू की पत्नी की आंखों में आंसू उमड़ आए थे। उसने मन की घबराहट रोक-रोककर कितनी बार नल खोलकर उसके शोर में उलटियां की हैं। रातों में सर्प की तरह लहराता हुआ दर्द ओंठ भींच-भींचकर चुपचाप सहा है। टूटे हुए शरीर से भी दौड़-दौड़कर इतने काम करती है कि तुम यह सब भूल जाओ...
पहली बार सातवें बच्चे की खबर सुनकर चेहरों पर स्याही पुत गयी थी और दादी ने ज़हर, भरा तीर मारा था, ‘‘अब यह सब अच्छा नहीं लगता। रोज पेट पकड़े पड़ी रहती है। घर में बच्चे समझदार हो गए हैं, पर इन्हें शरम नहीं आती !’’
शरम तो उसे सचमुच पहले बच्चे के जन्म पर आयी थी जब मुहल्ले भर की औरतों के सामने उसकी गोद में नारियल-मखाने और बताशे डाले गए थे....आशीर्वाद की वर्षा हुई थी—दूधो नहाओ पूतों फलो !...तब दादी को शरम नहीं लगी थी,
हुलस-हुलस कर कहा करती थी, ‘‘भगवान ने यह साध भी पूरी कर दी बहिन ! पोते-पोतियों के सुख से बड़ा और कौन-सा सुख है...इसी दिन के लिए आदमी जिन्दगी भर का ठाठ खड़ा करता है ! और बाबा ने दरवाजे पर शहनाई बैठाई थी....वह फलवती हुई थी....रातों में उसने फलों से लदे वृक्षों के सपने देखे थे और एक चांद-सी रोशनी नीले आकाश से उतर कर उसके गर्भ में समा गयी थी। जरा-सी आह पर दादी दौड़तीं, ‘‘बहू तू बैठ। मैं सब कर लूंगी। अरे पानी से भरी बाल्टी मत उठा बेटा ! धीरे-धीरे उतर सीढ़ियां। संभल के चल, धीरे धीरे उतर सीढ़ियां। संभाल के चल बेटा...’’
और कितने दिन पहले से उन्होंने सब तैयारियां की थीं। बाबा को सब चीजों की फेहरिश्त दे गयी थी—मेवा, घी, खोया, सोठ, छुआरे, चीनी, गुड़ और न जाने क्या क्या ? और बहुत प्यार से कहा था, ‘‘बहू तू तो बड़ी नासमझ है। दो-चार नन्हे-नन्हे कुरते सी ले, एक नन्हा-सा स्वेटर बुन ले...’’—और उनका सूखा चेहरा खिल-खिल उठता था।
और चन्दू उनकी आंख बचाकर उसे भीतर कमरे में पकड़ लाता था, आंखों में स्नेह भरकर पूछता था, ‘‘डर तो नहीं लगता !’’ और वह सचमुच अपने मन का डर छिपा नहीं पाती, ‘‘हाय...यह सब कैसे होगा...’’ और चन्दू के कंधे पर सिर रखकर डरी हुई हिरनी की तरह कांपती रहती थी...चारों तरफ घर में वही थी, हर आंख उस पर लगी थी। बाबा तक उसे आंखों से ओझल पा चिंता से कहने लगते थे, ‘‘देख, बहू वहां शायद अंधेरे कमरे में लेटी है...एक लालटेन तो रख आ !’’ और दादी लालटेन रखकर उसकी पीठ पर सान्त्वना का हाथ फेरकर कहती थीं, ‘‘घबरा मत बेटा। इस तरह अंधेरे में मत लेटा कर। कहीं खौफ समा गया तो...’’
चन्द्र ग्रहण की रात उन्होंने उसे बाहर नहीं निकलने दिया था। राहू से ग्रसे चन्द्र को देखने नहीं दिया था...अनिष्ट की छाया उस पर नहीं पड़ने दी थी और उसके हाथों से दान कराया हुआ अन्न मुक्त हाथों से बांटा था...
चन्दू ने कमरे में नन्हे-नन्हे, ,सुन्दर-सुन्दर बालकों के चित्र टांगे थे। पीड़ा, उल्लास और मातृत्व की सतर्कता के दिन कितने अनोखे थे ! जैसे अपने नारी-जीवन की चरम प्राप्ति उसे हुई थी...मखमली पंखों वाली दुग्ध वर्ण नन्हें-नन्हें देवदूत हर ओर मुस्कराते उड़ते रहते थे...आकाश में सितारों के फूल खिलते थे...
लेकिन आज आसमान काला था। सबके ऊपर सितारे टूट रहे थे और जैसे काले पंजों वाला दैत्य सबके गले दबोचे हुए था। अभी-अभी वह नल के शोर में उल्टी करके आयी है। शरीर नागपाश में जकड़ा हुआ है और लाखों सर्प का दंश उसे नीला करता जा रहा है। इस सर्दी में और इस अंधेरे कमरे में वह ऐसे ही अकड़कर टूट जाएगी और दर्द से भरे हुए उसके ओंठ फड़फड़ा कर बेजान हो जाएंगे। ऐसी मनहूस खामोशी में वह अपनी ही चीख से डरकर मर जाएगी।...
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